ब्लॉग की पहली पोस्ट निदा फाज़ली के शब्दों में मेरी मां को समर्पित जिन्होंने इस हसीन दुनिया को देखने और समझने लायक बनाया। उन्हीं की दुआओं के सहारे जीवन की कश्ती बस खेता चला जा रहा हूं...
याद आती है, चौका बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी मां
ऑफिस की कैंटीन में कच्ची-पक्की, बदबूदार रोटी खाते वक्त और किसी नुक्कड़ पर बासी आलू से बने पराठे खाते वक़्त मां के हाथ की वो सोंधी रोटी बहुत याद आती है, जिसकी ख़ुश्बू भी अब साल में एक या दो बार ही मिल पाती है। हजारों रुपए चुकाने के बाद भी मां की वो सोंधी रोटी का स्वाद नहीं मिलता, दिनभर ठूंस ठूंसकर खाने के बाद भी मां के हाथ की एक रोटी और चटनी से मिलने वाली तृप्ति नहीं होती। वो रोटी जिसे मां बड़े जतन से पकाती थी। गर्मी हो ठंड हो मां के हाथ थकते नहीं थे बेटे को रोटी बनाते वक़्त, लेकिन मैं स्कूल से वही रोटी सब्ज़ी बुरी तरह सानकर वापस ले आता था। क्योंकि मां के दिए गए 2 रुपयों से दोस्तों के साथ गुप्ता जी का समोसा खा लेता था। गुप्ता जी का समोसा मां की लाख जतन से बनाई गई उस रोटी से ज़्यादा स्वादिष्ट, पौष्टिक और क़ीमती लगता था। लेकिन मां आज वो रोटी बहुत बेशक़ीमती लगती है। मां वो रोटी बहुत याद आती है जिसे तुम बत्ती चली जाने के बाद भी सुबह 5 बजे जागकर मेरे लिए बनाती थी फटाफट ठंडे पानी से नहा धोकर । ठंड में बत्ती चली जाती थी और हीटर जल नहीं पाता था। लेकिन तुम्हारी प्रतिबद्धता कहीं कमज़ोर नहीं पड़ती थी। चूल्हा जलाने का वक़्त नहीं होता था क्योंकि स्कूल की बस आने ही वाली होती थी और मुझे जगाकर तैयार भी करना होता था। सचमुच आज पता चला...56 भोग भी मां के हाथ की उस सोंधी रोटी जैसी तृप्ति नहीं दे सकते जिसे मां बड़े प्यार से सिर्फ मेरे लिए पकाती थी।
1 comment:
sach anmol hai maa
aur mothers day par apki ye [ost padhna bhi
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