15 February, 2011

ग़रीबी क्या ना करवाए...

माज को सेक्स वर्करों से सहानुभूति का बर्ताव करना चाहिए। कोई भी अपनी खुशी से इस काम में नहीं पड़ता। ग़रीबी उसे ऐसा करने को मजबूर कर देती है। भारत का संविधान हर नागरिक को सम्मान से जीने का हक़ देता है और ये हक़ सेक्स वर्करों को भी हासिल है। इसलिए, केंद्र और राज्य सरकारों को उन्हें ज़रूरी तकनीकी ट्रेनिंग और रोज़गार देने की योजना बनानी चाहिए।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने की है ये टिप्पणी। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि कोई भी स्त्री अपनी खुशी से सेक्स वर्कर या वेश्या नहीं बनती। ये सब बेईमान पेट करवाता है। हमारे समाज में ऐसी स्त्रियों को लेकर आज तक ना जाने कितना बातें की गई। करोड़ों अक्षर लिखे गए। अरबों शब्द खर्च किए गए। और इनकी दशा सुधारने के नाम पर करोंड़ो डाकर लिए गए। कई आज भी डकार रहे हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट आज भी इनकी दशा को सुधारने के लिए सरकार को आदेश सुना रहा है। सरकार को ये आदेश जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की बेंच ने दिया है जो कोलकाता में साल 2009 में एक वेश्या के हत्या के मामले की सुनवाई कर रही  थी। बेंच ने इस मामले में ना सिर्फ आरोपी की उम्र क़ैद की सज़ा को बरकरार रखा बल्कि ये तल्ख़ टिप्पणी भी की कि वेश्यावृति करने वाली औरतें भी इंसान हैं। किसी को भी ये हक़ नहीं कि उन्हें मारे-पीटे या उनकी हत्या कर दे।

अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार को वेश्यावृत्ति कर रही महिलाओं के लिए एक पुनर्वास योजना बनानी होगी। साथ ही इनके लिए ऐसे सम्मानजनक रोज़गार की व्यवस्था करनी होगी जिससे ये महिलाएं समाज में आम नागरिक की तरह जीवन यापन कर रकें।  साथ ही सरकार को रोज़गार महिला को काम देने से पहले ये भी सुनिश्चित करना होगा कि वो जो काम कर रही है उससे उत्पादित वस्तु की बिक्री कहां होगी। सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश देर सी ही सही लेकिन समाज की उस सोच पर कड़ा प्रहार है जो इन औरतों की मज़हबूरी समझे बिना इनके कृत्य के घृणित करार दे देता है। साथ ही देश की व्यवस्था पर भी जो आज़ादी के इतने सालों बाद भी इनके लिए कोई ठोस इंतज़ाम ना कर सकी।

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